तर रखियो सदा या-रब तू इस मिज़ा-ए-तर को
हम इत्र लगाते हैं गर्मी में इसी ख़स का
Ahmad Faraz
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Habib Jalib
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सुनो मैं ख़ूँ को अपने साथ ले आया हूँ और बाक़ी
फिर इस तरफ़ वो परी-रू झमकता आता है
कल जो रुख़-ए-अ'रक़-फ़िशाँ यार ने टुक दिखा दिया
तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह
हों क्यूँ न बुतों की हम को दिल से चाहें
ये छपके का जो बाला कान में अब तुम ने डाला है
रक्खी हरगिज़ न तिरे रख ने रुख़-ए-बदर की क़द्र
न मैं दिल को अब हर मकाँ बेचता हूँ
तूफ़ाँ उठा रहा है मिरे दिल में सैल-ए-अश्क
जिन दिनों हम को उस से था इख़्लास
हुई शक्ल अपनी ये हम-नशीं जो सनम को हम से हिजाब है
तुम्हारे हाथ से कल हम भी रो लिए साहिब