बे-ज़री फ़ाक़ा-कशी मुफ़्लिसी बे-सामानी
हम फ़क़ीरों के भी हाँ कुछ नहीं और सब कुछ है
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Gulzar
Habib Jalib
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तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह
तुझे कुछ भी ख़ुदा का तर्स है ऐ संग-दिल तरसा
ऐ दिल अपनी तू चाह पर मत फूल
कर लेते अलग हम तो दिल इस शोख़ से कब का
फ़ना
साक़ी ये पिला उस को जो हो जाम से वाक़िफ़
न लज़्ज़तें हैं वो हँसने में और न रोने में
उसी की ज़ात को है दाइमन सबात-ओ-क़याम
महादेव-जी का ब्याह
ऐ दिल जो ये आँख आज लड़ाई उस ने
दिल हम ने जो चश्म-ए-बुत-ए-बेबाक से बाँधा
क्या हाल अब उस से अपने दिल का कहिए