भुला दीं हम ने किताबें कि उस परी-रू के
किताबी चेहरे के आगे किताब है क्या चीज़
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तुम्हारे हाथ से कल हम भी रो लिए साहिब
पुकारा क़ासिद-ए-अश्क आज फ़ौज-ए-ग़म के हाथों से
सरसब्ज़ रखियो किश्त को ऐ चश्म तू मिरी
हो के मह वो तो किसी और का हाला निकला
जिस काम को जहाँ में तू आया था ऐ 'नज़ीर'
बगूले उठ चले थे और न थी कुछ देर आँधी में
दिल देख उसे जिस घड़ी बे-ताब हुआ
जा पड़े चुप हो के जब शहर-ए-ख़मोशाँ में 'नज़ीर'
दूर-अज़-तरीक़ मुझ को समझियो न ज़ाहिदा
पाया मज़ा ये हम ने अपनी निगह लड़ी का
रुख़ परी चश्म परी ज़ुल्फ़ परी आन परी
कहते हैं याँ कि ''मुझ सा कोई मह-जबीं नहीं''