चलते चलते न ख़लिश कर फ़लक-ए-दूँ से 'नज़ीर'
फ़ाएदा क्या है कमीने से झगड़ कर चलना
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दुनिया है इक निगार-ए-फरेबंदा जल्वा-गर
हुए ख़ुश हम एक निगार से हुए शाद उस की बहार से
'नज़ीर' तेरी इशारतों से ये बातें ग़ैरों की सुन रहा है
अबस मेहनत है कुछ हासिल नहीं पत्थर-तराशी से
सनम के कूचे में छुप के जाना अगरचे यूँ है ख़याल दिल का
लेता है जान मेरी तो में सर-ब-दस्त हूँ
ज़माने के हाथों से चारा नहीं है
बहर-ए-हस्ती में सोहबत-ए-अहबाब
ऐ चश्म जो ये अश्क तू भर लाई है कम-बख़्त
उस ज़ुल्फ़ ने हम से ले के दिल बस्ता किया
मुँह ज़र्द ओ आह-ए-सर्द ओ लब-ए-ख़ुश्क ओ चश्म-ए-तर
गो सफ़ेदी मू की यूँ रौशन है जूँ आब-ए-हयात