मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में
चाहा इधर घटा दिया चाहा उधर बढ़ा दिया
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ऐ दिल जो ये आँख आज लड़ाई उस ने
कल 'नज़ीर' उस ने जो पूछा ब-ज़बान-ए-पंजाब
किसी ने रात कहा उस की देख कर सूरत
पस उस के गए सिपर जो हम कर सीना
दूर-अज़-तरीक़ मुझ को समझियो न ज़ाहिदा
जाड़े की बहारें
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
कब ग़ैर ने ये सितम सहे चुप
सनम के कूचे में छुप के जाना अगरचे यूँ है ख़याल दिल का
हम देखें किस दिन हुस्न ऐ दिल उस रश्क-ए-परी का देखेंगे
हर आन तुम्हारे छुपने से ऐसा ही अगर दुख पाएँगे हम
खींच कर इस माह-रू को आज याँ लाई है रात