हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समुंदर मेरा
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वालिद की वफ़ात पर
अब किसी से भी शिकायत न रही
बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
हुए सब के जहाँ में एक जब अपना जहाँ और हम
गरज बरस प्यासी धरती फिर पानी दे मौला
सूरज को चोंच में लिए मुर्ग़ा खड़ा रहा
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई
ये कैसी कश्मकश है ज़िंदगी में
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
बृन्दाबन के कृष्ण कन्हैया अल्लाह हू
राक्षस था न ख़ुदा था पहले