क़िल्लत ख़ुलूस की है मोहब्बत का काल है
क़िल्लत ख़ुलूस की है मोहब्बत का काल है
इस शहर-ए-ना-सिपास में जीना मुहाल है
पेड़ों पे चाँदनी के हयूले हैं महव-ए-रक़्स
कमरे में तीरगी की लकीरों का जाल है
साँसों का रब्त जैसे मुसलसल अज़ाब हो
वो शख़्स क्या जिए जिसे तेरा ख़याल है
लम्हों ने छीन ली है रुतों से शगुफ़्तगी
ये साल मौसमों के तग़य्युर का साल है
अब तो शिकस्त-ए-जाँ के अमल से नजात दे
ये ना-तवाँ वजूद दुखों से निढाल है
चिड़ियाँ चहक चहक के परेशान हो गईं
कव्वों का शोर घर की फ़ज़ा का वबाल है
फूलों का लम्स चाँद की ठंडक भी हेच है
वो ख़ुश बदन तो आप ही अपनी मिसाल है
आ फिर से मेरे प्यार की तक़्दीस बन 'नियाज़'
आ काँपते लबों पे तिरा ही सवाल है
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