ये आरज़ू थी कि हम उस के साथ साथ चलें
मगर वो शख़्स तो रस्ता बदलता जाता है
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किसी हर्फ़ में किसी बाब में नहीं आएगा
उसे लाख दिल से पुकार लो उसे देख लो
एक जैसा मुकालिमा
उदास शाम की एक नज़्म
ये सर्दियों का उदास मौसम कि धड़कनें बर्फ़ हो गई हैं
दुश्मन-ए-जाँ कई क़बीले हुए
यही नहीं कोई तूफ़ाँ मिरी तलाश में है
मैं फ़ैसले की घड़ी से गुज़र चुकी हूँ मगर
जलाए रक्खूँ-गी सुब्ह तक मैं तुम्हारे रस्तों में अपनी आँखें
वो बात बात में इतना बदलता जाता है
मोहब्बतें जब शुमार करना तो साज़िशें भी शुमार करना