पहले इक मौज-ए-हवा आती है
और फिर घिर के घटा आती है
ऐसा सन्नाटा कभी होता है
दिल धड़कने की सदा आती है
ज़ुल्म को देख के चुप रहते हैं
हम को जीने से हया आती है
मैं तो अब हाथ उठाता ही नहीं
क्या तुम्हें कोई दुआ आती है
किस लिए बंद किए बैठे हो
इन दरीचों से हवा आती है