ईराद कर न पढ़ के मिरा ख़त कि ये तमाम
बे-रब्तियाँ हैं समरा-ए-हंगाम-ए-इश्तियाक़
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दिन रात किस की याद थी कैसा मलाल था
जिस मुसल्ले पे छिड़किए न शराब
गिर्या तो 'क़ाएम' थमा मिज़्गाँ अभी होंगे न ख़ुश्क
आज जी में है कि खुल कर मय-परस्ती कीजिए
एक जागह पे नहीं है मुझे आराम कहीं
ज़ालिम तू मेरी सादा-दिली पर तो रहम कर
ता-चंद सुख़न-साज़ी-ए-नैरंग-ए-ख़राबात
क़त्ल पे तेरे मुझे कद चाहिए
दिन ही मिलिएगा या शब आइएगा
न पूछ ''गिर्या-ए-ख़ूँ का तिरे है क्या बाइस''
दिल पा के उस की ज़ुल्फ़ में आराम रह गया
टुक तो ख़ामोश रखो मुँह में ज़बाँ सुनते हो