जिस मुसल्ले पे छिड़किए न शराब
अपने आईन में वो पाक नहीं
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याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है
दिल चुरा ले के अब किधर को चला
दिन ही मिलिएगा या शब आइएगा
नहीं बंद-ए-क़बा में तन हमारा
याँ तलक ख़ुश हूँ अमारिद से कि ऐ रब्ब-ए-करीम
देखा है आज राह में हम इक हरीर-पोश
बिना थी ऐश-ए-जहाँ की तमाम ग़फ़लत पर
हो गर ऐसे ही मिरी शक्ल से बेज़ार बहुत
जूँ शम्अ दम-ए-सुब्ह मैं याँ से सफ़री हूँ
जूँ इबरत-ए-कोर जल्वा-गर हूँ
टुक तो ख़ामोश रखो मुँह में ज़बाँ सुनते हो
मोहतसिब से सलाह कीजिएगा