बिना थी ऐश-ए-जहाँ की तमाम ग़फ़लत पर
खुली जो आँख तो गोया कि एहतेलाम हुआ
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लाएक़ वफ़ा के ख़ल्क़ ओ सज़ा-ए-जफ़ा हूँ मैं
चाहें हैं ये हम भी कि रहे पाक मोहब्बत
थोड़ी सी बात में 'क़ाएम' की तू होता है ख़फ़ा
होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह
क़िस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद
मालूम कुछ हुआ ही न दिल का असर कहीं
रहने दे शब अपने पास मुझ को
ख़स नमत साथ मौज के लग ले
कौन सा दिन कि मुझे उस से मुलाक़ात नहीं
वहशत-ए-दिल कोई शहरों में समा सकती है
आ ऐ 'असर' मुलाज़िम-ए-सरकार-ए-गिर्या हो
दुख़्तर-ए-रज़ तो है बेटी सी तिरे ऊपर हराम