बाँग-ए-मस्जिद से कब उस को सर-ए-मानूसी है
जिस के कानों में भरा नाला-ए-नाक़ूसी है
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याँ तलक ख़ुश हूँ अमारिद से कि ऐ रब्ब-ए-करीम
'क़ाएम' हयात-ओ-मर्ग-ए-बुज़-ओ-गाव में हैं नफ़अ
तर्क-ए-वफ़ा गरचे सदाक़त नहीं
टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़
बा'द ख़त आने के उस से था वफ़ा का एहतिमाल
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
दिल मिरा देख देख जलता है
मोहतसिब से सलाह कीजिएगा
दिल को फाँसा है हर इक उज़्व की तेरे छब ने
जी तलक आतिश-ए-हिज्राँ में सँभाला न गया
हम दिवानों को बस है पोशिश से
दुनिया में हम रहे तो कई दिन प इस तरह