हम दिवानों को बस है पोशिश से
दामन-ए-दश्त ओ चादर-ए-महताब
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कब मैं कहता हूँ कि तेरा मैं गुनहगार न था
की वफ़ा किस से भला फ़ाहिशा-ए-दुनिया ने
मैं ख़ूब अहल-ए-जहाँ देखे और जहाँ देखा
गो ब-नाम इक ज़बान रखती है शम्अ
मालूम कुछ हुआ ही न दिल का असर कहीं
रहने दे शब अपने पास मुझ को
इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया
आप जो कुछ क़रार करते हैं
वाशुद की दिल के और कोई राह ही नहीं
जी तलक आतिश-ए-हिज्राँ में सँभाला न गया
डहा खड़ा है हज़ारों जगह से क़स्र-ए-वजूद
कौन सा दिन कि मुझे उस से मुलाक़ात नहीं