कब मैं कहता हूँ कि तेरा मैं गुनहगार न था
लेकिन इतनी तो उक़ूबत का सज़ा-वार न था
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अहल-ए-मस्जिद ने जो काफ़िर मुझे समझा तो क्या
तर्क कर अपना भी कि इस राह में
मय की तौबा को तो मुद्दत हुई 'क़ाएम' लेकिन
दिल चुरा ले के अब किधर को चला
हर उज़्व है दिल-फ़रेब तेरा
शैख़-जी माना मैं इस को तुम फ़रिश्ता हो तो हो
मैं हूँ कि मेरे दुख पे कोई चश्म-ए-तर न हो
इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया
ऐ इश्क़ मिरे दोश पे तू बोझ रख अपना
जिस मुसल्ले पे छिड़किए न शराब
कभू दिखा के कमर और कभू दहाँ मुझ को
गह पीर-ए-शैख़ गाह मुरीद-ए-मुग़ाँ रहे