हर उज़्व है दिल-फ़रेब तेरा
कहिए किसे कौन सा है बेहतर
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'क़ाएम' मैं इख़्तियार किया शाएरी का ऐब
कब मैं कहता हूँ कि तेरा मैं गुनहगार न था
वहशत-ए-दिल कोई शहरों में समा सकती है
दिल चुरा ले के अब किधर को चला
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
ख़त के आते ही वो मुखड़े की सफ़ाई क्या हुई
होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह
मय पी जो चाहे आतिश-ए-दोज़ख़ से तू नजात
गर यही ना-साज़ी-ए-दीं है तो इक दिन शैख़-जी
मय की तौबा को तो मुद्दत हुई 'क़ाएम' लेकिन
न कह कि बे-असर अन्फ़ास-ए-सर्द होते हैं
मैं दिवाना हूँ सदा का मुझे मत क़ैद करो