हर तरफ़ ज़र्फ़-ए-वज़ू भरते हैं ज़ाहिद हुई सुब्ह
साथ उठ हम भी सुराही में मय-ए-नाब करें
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दुनिया में हम रहे तो कई दिन प इस तरह
बिना थी ऐश-ए-जहाँ की तमाम ग़फ़लत पर
हर-चंद दुख-दही से ज़माने को इश्क़ है
गो ब-नाम इक ज़बान रखती है शम्अ
न पूछ ''गिर्या-ए-ख़ूँ का तिरे है क्या बाइस''
न जाने कौन सी साअत चमन से बिछड़े थे
सुब्ह तक था वहीं ये मुख़्लिस भी
हर इक सूरत में तुझ को जानते हैं
हो गर ऐसे ही मिरी शक्ल से बेज़ार बहुत
अब के जो यहाँ से जाएँगे हम
याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है
रस्म इस घर की नहीं दाद किसू की दे कोई