हर दम आने से मैं भी हूँ नादिम
क्या करूँ पर रहा नहीं जाता
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क़त्ल पे तेरे मुझे कद चाहिए
क़ाएम मैं ग़ज़ल तौर किया रेख़्ता वर्ना
याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है
जूँ शीशा भरा हूँ मय से लेकिन
जिस मुसल्ले पे छिड़किए न शराब
कब मैं कहता हूँ कि तेरा मैं गुनहगार न था
क़ाज़ी ख़बर ले मय को भी लिक्खा है वाँ मुबाह
फ़िक्र-ए-तामीर में हूँ फिर भी मैं घर की ऐ चर्ख़
वहशत-ए-दिल कोई शहरों में समा सकती है
दिल मिरा देख देख जलता है
'क़ाएम' मैं इख़्तियार किया शाएरी का ऐब
देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़