जूँ शीशा भरा हूँ मय से लेकिन
मस्ती से मैं अपनी बे-ख़बर हूँ
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देखा है आज राह में हम इक हरीर-पोश
रस्म इस घर की नहीं दाद किसू की दे कोई
जिस चश्म को वो मेरा ख़ुश-चश्म नज़र आया
मालूम कुछ हुआ ही न दिल का असर कहीं
देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़
बे-शग़ल न ज़िंदगी बसर कर
मैं कहा ख़ल्क़ तुम्हारी जो कमर कहती है
इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया
ले चुको दिल जो निगह को तो ये दुश्वार नहीं
मैं दिवाना हूँ सदा का मुझे मत क़ैद करो
तरफ़ ने बंद किया है हर इक तरफ़ से तुझे
पहले ही गधा मिले जहाँ शैख़