जिस चश्म को वो मेरा ख़ुश-चश्म नज़र आया
नर्गिस का उसे जल्वा इक पश्म नज़र आया
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शामत है क्या कि शैख़ से कोई मिले कि वाँ
हर उज़्व है दिल-फ़रेब तेरा
नहीं बंद-ए-क़बा में तन हमारा
उठ जाए गर ये बीच से पर्दा हिजाब का
डहा खड़ा है हज़ारों जगह से क़स्र-ए-वजूद
जी में चुहलें थीं जो कुछ सो तो गईं यार के साथ
जिस मुसल्ले पे छिड़किए न शराब
सैर उस कूचे की करता हूँ कि जिब्रील जहाँ
दिल से बस हाथ उठा तू अब ऐ इश्क़
जो कोई दर पे तिरे बैठे हैं
कल ऐ आशोब-ए-नाला आज नहीं
जिया ब-काम कब इस बख़्त-ए-अर्जुमंद से मैं