शामत है क्या कि शैख़ से कोई मिले कि वाँ
रोज़ा वबाल-ए-जाँ है सदा या नमाज़ है
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ख़त के आते ही वो मुखड़े की सफ़ाई क्या हुई
जहाँ को वो लब-ए-मय-गूँ ख़राब रखते हैं
बे-शग़ल न ज़िंदगी बसर कर
देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़
दिन ही मिलिएगा या शब आइएगा
मैं ख़ूब अहल-ए-जहाँ देखे और जहाँ देखा
गिर्या तो 'क़ाएम' थमा मिज़्गाँ अभी होंगे न ख़ुश्क
टुक फ़हम इरादत से बरहमन की समझ शैख़
क़िस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद
हर तरफ़ ज़र्फ़-ए-वज़ू भरते हैं ज़ाहिद हुई सुब्ह
दिल से बस हाथ उठा तू अब ऐ इश्क़
किस बात पर तिरी मैं करूँ ए'तिबार हाए