किस बात पर तिरी मैं करूँ ए'तिबार हाए
इक़रार यक तरफ़ है तो इंकार यक तरफ़
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देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़
दुर्द पी लेते हैं और दाग़ पचा जाते हैं
दिल मिरा देख देख जलता है
न दिल भरा है न अब नम रहा है आँखों में
गो याँ न किसी को आए अफ़सोस
गंदुमी रंग जो है दुनिया में
शैख़-जी आया न मस्जिद में वो काफ़िर वर्ना हम
जूँ शम्अ दम-ए-सुब्ह मैं याँ से सफ़री हूँ
देखा है आज राह में हम इक हरीर-पोश
तर्क कर अपना भी कि इस राह में
दिन रात किस की याद थी कैसा मलाल था
होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह