कोई दिन आगे भी ज़ाहिद अजब ज़माना था
हर इक मोहल्ले की मस्जिद शराब-ख़ाना था
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अहल-ए-मस्जिद ने जो काफ़िर मुझे समझा तो क्या
आओ कुछ शग़्ल करें बैठे हैं उर्यां इतने
हर इक सूरत में तुझ को जानते हैं
न पूछो कि 'क़ाएम' का क्या हाल है
फूटी भली वो आँख जो आँसू से तर नहीं
तरफ़ ने बंद किया है हर इक तरफ़ से तुझे
टुक तो ख़ामोश रखो मुँह में ज़बाँ सुनते हो
किस बात पर तिरी मैं करूँ ए'तिबार हाए
रहने दे शब अपने पास मुझ को
ज़ालिम तू मेरी सादा-दिली पर तो रहम कर
मैं कहा ख़ल्क़ तुम्हारी जो कमर कहती है
हम हैं जिन्हों ने नाम-ए-चमन बू नहीं किया