कूचा तिरा नशे की ये शिद्दत जहाँ से लाग
अल्लाह ही निबाहे मियाँ आज घर तलक
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गर्म कर दे तू टुक आग़ोश में आ
रस्म इस घर की नहीं दाद किसू की दे कोई
एक जागह पे नहीं है मुझे आराम कहीं
गो ब-नाम इक ज़बान रखती है शम्अ
ले चुको दिल जो निगह को तो ये दुश्वार नहीं
बिना थी ऐश-ए-जहाँ की तमाम ग़फ़लत पर
माँगे है तिरे मिलने को बे-तरह से दिल आज
आओ कुछ शग़्ल करें बैठे हैं उर्यां इतने
तेरी ज़बाँ से ख़स्ता कोई ज़ार है कोई
मैं ख़ूब अहल-ए-जहाँ देखे और जहाँ देखा
गिर्या तो 'क़ाएम' थमा मिज़्गाँ अभी होंगे न ख़ुश्क
इस को न रात कह तू न इस को बता ग़लत