गर्म कर दे तू टुक आग़ोश में आ
मारे जाड़े के ठिरे बैठे हैं
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तरफ़ ने बंद किया है हर इक तरफ़ से तुझे
ईराद कर न पढ़ के मिरा ख़त कि ये तमाम
हर इक सूरत में तुझ को जानते हैं
रौनक़-ए-बादा-परस्ती थी हमीं तक जब से
बड़ न कह बात को तीं हज़रत-ए-'क़ाएम' की कि वो
जो कोई दर पे तिरे बैठे हैं
आज जी में है कि खुल कर मय-परस्ती कीजिए
ये पास-ए-दीं तिरा है सब उस वक़्त तक कि शैख़
मय पी जो चाहे आतिश-ए-दोज़ख़ से तू नजात
मैं किन आँखों से ये देखूँ कि साया साथ हो तेरे
शब जो दिल बे-क़रार था क्या था
टुक तो ख़ामोश रखो मुँह में ज़बाँ सुनते हो