मैं किन आँखों से ये देखूँ कि साया साथ हो तेरे
मुझे चलने दे आगे या टुक उस को पेशतर ले जा
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आतिश-ए-तब ने की है ताब शुरूअ
दर्द-ए-दिल क्यूँ-कि कहूँ मैं उस से
जी में चुहलें थीं जो कुछ सो तो गईं यार के साथ
वाक़िफ़ नहीं हम कि क्या है बेहतर
दुनिया में हम रहे तो कई दिन प इस तरह
हम हैं जिन्हों ने नाम-ए-चमन बू नहीं किया
इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया
की वफ़ा किस से भला फ़ाहिशा-ए-दुनिया ने
उठ जाए गर ये बीच से पर्दा हिजाब का
आगे कुछ उस के ज़िक्र-ए-दिल-ए-ज़ार मत करो
किधर अबरू की उस के धाक नहीं
'क़ाएम' मैं रेख़्ता को दिया ख़िलअत-ए-क़ुबूल