की वफ़ा किस से भला फ़ाहिशा-ए-दुनिया ने
है तुझे शौक़ जो इस क़हबा की दामादी का
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इलाही वाक़ई इतना ही बद है फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर
रौनक़-ए-बादा-परस्ती थी हमीं तक जब से
रस्म इस घर की नहीं दाद किसू की दे कोई
मैं न वो हूँ कि तनिक ग़ुस्से में टल जाऊँगा
न पूछो कि 'क़ाएम' का क्या हाल है
नासेहा कर न इसे सी के पशेमाँ मुझ को
किधर अबरू की उस के धाक नहीं
मैं हूँ कि मेरे दुख पे कोई चश्म-ए-तर न हो
न बीम-ए-ग़म है ने शादी की हम उम्मीद करते हैं
सहरा पे गर जुनूँ मुझे लावे इताब में
तेरी ज़बाँ से ख़स्ता कोई ज़ार है कोई
बाँग-ए-मस्जिद से कब उस को सर-ए-मानूसी है