मैं हूँ कि मेरे दुख पे कोई चश्म-ए-तर न हो
मर भी अगर रहूँ तो किसी को ख़बर न हूँ
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आगे कुछ उस के ज़िक्र-ए-दिल-ए-ज़ार मत करो
कब मैं कहता हूँ कि तेरा मैं गुनहगार न था
क़ाएम मैं ग़ज़ल तौर किया रेख़्ता वर्ना
टुकड़े कई इक दिल के मैं आपस में सिए हैं
छोड़ मावा-ए-ज़क़न ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ में फँसा
नासेहा कर न इसे सी के पशेमाँ मुझ को
जूँ इबरत-ए-कोर जल्वा-गर हूँ
देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़
आज आप मिरे हाल पे करते हैं तअस्सुफ़
बाँग-ए-मस्जिद से कब उस को सर-ए-मानूसी है
वाशुद की दिल के और कोई राह ही नहीं
आप जो कुछ क़रार करते हैं