मैं कहा अहद क्या किया था रात
हँस के कहने लगा कि याद नहीं
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टुक फ़हम इरादत से बरहमन की समझ शैख़
जो कोई दर पे तिरे बैठे हैं
मय पी जो चाहे आतिश-ए-दोज़ख़ से तू नजात
क़ासिद को दे न ऐ दिल उस गुल-बदन की पाती
हम हैं जिन्हों ने नाम-ए-चमन बू नहीं किया
फ़िक्र-ए-तामीर में हूँ फिर भी मैं घर की ऐ चर्ख़
याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है
छोड़ मावा-ए-ज़क़न ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ में फँसा
'क़ाएम' मैं रेख़्ता को दिया ख़िलअत-ए-क़ुबूल
गर्म कर दे तू टुक आग़ोश में आ
कोई दिन आगे भी ज़ाहिद अजब ज़माना था
उठ जाए गर ये बीच से पर्दा हिजाब का