ये पास-ए-दीं तिरा है सब उस वक़्त तक कि शैख़
देखा नहीं है तू ने वो काफ़िर फ़रंग का
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याँ तलक ख़ुश हूँ अमारिद से कि ऐ रब्ब-ए-करीम
दर्द-ए-दिल कुछ कहा नहीं जाता
फ़िक्र-ए-तामीर में हूँ फिर भी मैं घर की ऐ चर्ख़
मालूम कुछ हुआ ही न दिल का असर कहीं
शब जो दिल बे-क़रार था क्या था
मैं न वो हूँ कि तनिक ग़ुस्से में टल जाऊँगा
माँगे है तिरे मिलने को बे-तरह से दिल आज
जिस को हस्ती ओ अदम जानते हैं
हर तरफ़ ज़र्फ़-ए-वज़ू भरते हैं ज़ाहिद हुई सुब्ह
ज़ाहिद दर-ए-मस्जिद पे ख़राबात की तू ने
मैं हूँ कि मेरे दुख पे कोई चश्म-ए-तर न हो
जिस मुसल्ले पे छिड़किए न शराब