होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह
इस उम्र में है वर्ना मज़ा क्या ख़िज़ाब का
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मालूम कुछ हुआ ही न दिल का असर कहीं
देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़
टुकड़े कई इक दिल के मैं आपस में सिए हैं
'क़ाएम' जो कहें हैं फ़ारसी यार
रौनक़-ए-बादा-परस्ती थी हमीं तक जब से
ज़ाहिद दर-ए-मस्जिद पे ख़राबात की तू ने
हो गर ऐसे ही मिरी शक्ल से बेज़ार बहुत
वाक़िफ़ नहीं हम कि क्या है बेहतर
मैं ख़ूब अहल-ए-जहाँ देखे और जहाँ देखा
आवे ख़िज़ाँ चमन की तरफ़ गर मैं रू करूँ
आप जो कुछ क़रार करते हैं
एक जागह पे नहीं है मुझे आराम कहीं