दिल से बस हाथ उठा तू अब ऐ इश्क़
देह-ए-वीरान पर ख़िराज नहीं
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दिल चुरा ले के अब किधर को चला
न बीम-ए-ग़म है ने शादी की हम उम्मीद करते हैं
कहता है आइना कि है तुझ सा ही एक और
ओहदे से तेरे हम को बर आया न जाएगा
डहा खड़ा है हज़ारों जगह से क़स्र-ए-वजूद
हम मूए फिरते हैं और ख़्वाहिश-ए-जाँ है उस को
ज़ालिम तू मेरी सादा-दिली पर तो रहम कर
जिस को हस्ती ओ अदम जानते हैं
नज़र में काबा क्या ठहरे कि याँ दैर
मअनी न आएँ दर्क में ग़ैर-अज़-वजूद-ए-लफ़्ज़
टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़
ईराद कर न पढ़ के मिरा ख़त कि ये तमाम