कहता है आइना कि है तुझ सा ही एक और
बावर नहीं तो ला मैं तिरे रू-ब-रू करूँ
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सैर उस कूचे की करता हूँ कि जिब्रील जहाँ
दर्द-ए-दिल कुछ कहा नहीं जाता
तेरी ज़बाँ से ख़स्ता कोई ज़ार है कोई
आज जी में है कि खुल कर मय-परस्ती कीजिए
पहले ही अपनी कौन थी वाँ क़द्र-ओ-मंज़िलत
मोहतसिब से सलाह कीजिएगा
यूँही रंजिश हो और गिला भी यूँही
जी तलक आतिश-ए-हिज्राँ में सँभाला न गया
दिल मिरा देख देख जलता है
मैं न वो हूँ कि तनिक ग़ुस्से में टल जाऊँगा
नासेहा कर न इसे सी के पशेमाँ मुझ को
टुकड़े कई इक दिल के मैं आपस में सिए हैं