दिल को फाँसा है हर इक उज़्व की तेरे छब ने
हाथ ने पाँव ने मुखड़े ने दहन ने लब ने
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रौनक़-ए-बादा-परस्ती थी हमीं तक जब से
तेरी ज़बाँ से ख़स्ता कोई ज़ार है कोई
पास-ए-इख़्लास सख़्त है तकलीफ़
यूँही रंजिश हो और गिला भी यूँही
जो कोई दर पे तिरे बैठे हैं
क़ासिद को दे न ऐ दिल उस गुल-बदन की पाती
जिस चश्म को वो मेरा ख़ुश-चश्म नज़र आया
'क़ाएम' मैं रेख़्ता को दिया ख़िलअत-ए-क़ुबूल
इलाही वाक़ई इतना ही बद है फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर
ओहदे से तेरे हम को बर आया न जाएगा
कौन सा दिन कि मुझे उस से मुलाक़ात नहीं
दुर्द पी लेते हैं और दाग़ पचा जाते हैं