दुख़्तर-ए-रज़ तो है बेटी सी तिरे ऊपर हराम
रिंद इस रिश्ते से सारे तिरे दामाद हैं शैख़
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सुब्ह तक था वहीं ये मुख़्लिस भी
मैं हूँ कि मेरे दुख पे कोई चश्म-ए-तर न हो
इलाही वाक़ई इतना ही बद है फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर
मस्जिद से गर तू शैख़ निकाला हमें तो क्या
चाहें हैं ये हम भी कि रहे पाक मोहब्बत
इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया
ता-चंद सुख़न-साज़ी-ए-नैरंग-ए-ख़राबात
टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़
जूँ इबरत-ए-कोर जल्वा-गर हूँ
उठ जाए गर ये बीच से पर्दा हिजाब का
किस बात पर तिरी मैं करूँ ए'तिबार हाए
अब तू ने गुल न गुल्सिताँ है याद