नज़र में काबा क्या ठहरे कि याँ दैर
रहा है मुद्दतों मस्कन हमारा
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क़िस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद
आतिश-ए-तब ने की है ताब शुरूअ
जूँ शम्अ दम-ए-सुब्ह मैं याँ से सफ़री हूँ
हर इक सूरत में तुझ को जानते हैं
मैं किन आँखों से ये देखूँ कि साया साथ हो तेरे
देखा है आज राह में हम इक हरीर-पोश
अहल-ए-मस्जिद ने जो काफ़िर मुझे समझा तो क्या
मैं कहा ख़ल्क़ तुम्हारी जो कमर कहती है
दिल पा के उस की ज़ुल्फ़ में आराम रह गया
दिल मिरा देख देख जलता है
बड़ न कह बात को तीं हज़रत-ए-'क़ाएम' की कि वो
लाएक़ वफ़ा के ख़ल्क़ ओ सज़ा-ए-जफ़ा हूँ मैं