न जाने कौन सी साअत चमन से बिछड़े थे
कि आँख भर के न फिर सू-ए-गुल्सिताँ देखा
Wasi Shah
Anwar Masood
Ahmad Faraz
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Javed Akhtar
Jaun Eliya
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Habib Jalib
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मस्जिद से गर तू शैख़ निकाला हमें तो क्या
तेरी ज़बाँ से ख़स्ता कोई ज़ार है कोई
गर यही ना-साज़ी-ए-दीं है तो इक दिन शैख़-जी
तर्क कर अपना भी कि इस राह में
मैं कहा ख़ल्क़ तुम्हारी जो कमर कहती है
थोड़ी सी बात में 'क़ाएम' की तू होता है ख़फ़ा
मैं हूँ कि मेरे दुख पे कोई चश्म-ए-तर न हो
जाते ही हो गर ख़्वाह-नख़वाह
मैं न वो हूँ कि तनिक ग़ुस्से में टल जाऊँगा
दिल से बस हाथ उठा तू अब ऐ इश्क़
कर इम्तिहाँ टुक हो के तू खूँ-ख़्वार यक तरफ़