ऐ इश्क़ मिरे दोश पे तू बोझ रख अपना
हर सर मुतहम्मिल नहीं इस बार-ए-गिराँ का
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गह पीर-ए-शैख़ गाह मुरीद-ए-मुग़ाँ रहे
आवे ख़िज़ाँ चमन की तरफ़ गर मैं रू करूँ
शामत है क्या कि शैख़ से कोई मिले कि वाँ
किधर अबरू की उस के धाक नहीं
सुब्ह तक था वहीं ये मुख़्लिस भी
न बीम-ए-ग़म है ने शादी की हम उम्मीद करते हैं
न दिल भरा है न अब नम रहा है आँखों में
हर-चंद दुख-दही से ज़माने को इश्क़ है
क़िस्सा-ए-बरहना-पाई को मिरे ऐ मजनूँ
चाहें हैं ये हम भी कि रहे पाक मोहब्बत
टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़
अहल-ए-मस्जिद ने जो काफ़िर मुझे समझा तो क्या