बा'द ख़त आने के उस से था वफ़ा का एहतिमाल
लेक वाँ तक उम्र ने अपनी वफ़ादारी न की
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माँगे है तिरे मिलने को बे-तरह से दिल आज
होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह
यूँ तो दुनिया में हर इक काम के उस्ताद हैं शैख़
शब जो दिल बे-क़रार था क्या था
मैं दिवाना हूँ सदा का मुझे मत क़ैद करो
रस्म इस घर की नहीं दाद किसू की दे कोई
फिर के जो वो शोख़ नज़र कर गया
पूछो हो मुझ से तुम कि पिएगा भी तू शराब
ये पास-ए-दीं तिरा है सब उस वक़्त तक कि शैख़
ईराद कर न पढ़ के मिरा ख़त कि ये तमाम
'क़ाएम' जो कहें हैं फ़ारसी यार