चाहें हैं ये हम भी कि रहे पाक मोहब्बत
पर जिस में ये दूरी हो वो क्या ख़ाक मोहब्बत
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कूचा तिरा नशे की ये शिद्दत जहाँ से लाग
टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़
यूँ तो दुनिया में हर इक काम के उस्ताद हैं शैख़
थोड़ी सी बात में 'क़ाएम' की तू होता है ख़फ़ा
पहले ही अपनी कौन थी वाँ क़द्र-ओ-मंज़िलत
न दिल भरा है न अब नम रहा है आँखों में
पहले ही गधा मिले जहाँ शैख़
ओहदे से तेरे हम को बर आया न जाएगा
ज़ालिम तू मेरी सादा-दिली पर तो रहम कर
दिल को फाँसा है हर इक उज़्व की तेरे छब ने
शैख़-जी माना मैं इस को तुम फ़रिश्ता हो तो हो
सहरा पे गर जुनूँ मुझे लावे इताब में