चाहिए आदमी हो बार-ए-तअल्लुक़ से बरी
क्यूँकि बेगानों के याँ बोझ को ख़र ढोते हैं
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Rahat Indori
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आप जो कुछ क़रार करते हैं
आओ कुछ शग़्ल करें बैठे हैं उर्यां इतने
वाक़िफ़ नहीं हम कि क्या है बेहतर
बिना थी ऐश-ए-जहाँ की तमाम ग़फ़लत पर
कूचा तिरा नशे की ये शिद्दत जहाँ से लाग
देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़
वहशत-ए-दिल कोई शहरों में समा सकती है
'क़ाएम' हयात-ओ-मर्ग-ए-बुज़-ओ-गाव में हैं नफ़अ
रस्म इस घर की नहीं दाद किसू की दे कोई
ईराद कर न पढ़ के मिरा ख़त कि ये तमाम
हाथों से दिल ओ दीदा के आया हूँ निपट तंग
दिल चुरा ले के अब किधर को चला