वो तवज्जोह दे न दे लेकिन सदा देते रहो
अपने होने का उसे 'रूही' पता देते रहो
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किसी भी काम का मेरा हुनर नहीं न सही
अब आप आ गए हैं तो आता नहीं है याद
यूँ आज अपने-आप से उलझा हुआ हूँ मैं
मेरे लिए वो शख़्स मुसीबत भी बहुत है
हज़ार रंग जलाल-ओ-जमाल के देखे
मुंसिफ़-वक़्त से बेगाना गुज़रना होगा
किस लिए फिरता हूँ तन्हा न किसी ने पूछा
ये सिलसिला-ए-शाम-ओ-सहर यूँही नहीं है
ज़ालिम पे अज़ाब हो गया हूँ
अपनी मर्ज़ी ही करोगे तुम भी
फिर कोई हादिसा हुआ ही नहीं
आब-ए-रवाँ हूँ रास्ता क्यूँ न ढूँढ लूँ