दोनों हों कैसे एक जा 'मेहदी' सुरूर-ओ-सोज़-ए-दिल
बर्क़-ए-निगाह-ए-नाज़ ने गिर के बता दिया कि यूँ
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मुस्तक़िल अब बुझा बुझा सा है
कैसे करूँ मैं ज़ब्त-ए-राज़ तू ही मुझे बता कि यूँ
कैफ़-ए-सुरूर-ओ-सोज़ के क़ाबिल नहीं रहा
इन में क्या फ़र्क़ है अब इस का भी एहसास नहीं
बनते ही शहर का ये देखिए वीराँ होना
जिंस-ए-वफ़ा का दहर में बाज़ार गिर गया