जनाब-ए-शैख़ मय-ख़ाने में बैठे हैं बरहना-सर
अब उन से कौन पूछे आप ने पगड़ी कहाँ रख दी
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सुना भी कभी माजरा दर्द-ओ-ग़म का किसी दिल-जले की ज़बानी कहो तो
हमेशा ख़ून-ए-दिल रोया हूँ मैं लेकिन सलीक़े से
अमानत मोहतसिब के घर शराब-ए-अर्ग़वाँ रख दी
होते ही जवाँ हो गए पाबंद-ए-हिजाब और
आह करता हूँ तो आते हैं पसीने उन को
जताते रहते हैं ये हादसे ज़माने के
मोहब्बत में जीना नई बात है
तुम्हें परवा न हो मुझ को तो जिंस-ए-दिल की परवा है
ये मस्जिद है ये मय-ख़ाना तअ'ज्जुब इस पर आता है
हैं ए'तिबार से कितने गिरे हुए देखा
मिले ग़ैरों से मुझ को रंज ओ ग़म यूँ भी है और यूँ भी