झड़ी ऐसी लगा दी है मिरे अश्कों की बारिश ने
दबा रक्खा है भादों को भुला रक्खा है सावन को
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मोहतसिब तस्बीह के दानों पे ये गिनता रहा
हमेशा ख़ून-ए-दिल रोया हूँ मैं लेकिन सलीक़े से
आह करता हूँ तो आते हैं पसीने उन को
बसा-औक़ात आ जाते हैं दामन से गरेबाँ में
होते ही जवाँ हो गए पाबंद-ए-हिजाब और
ये मस्जिद है ये मय-ख़ाना तअ'ज्जुब इस पर आता है
हक़-ओ-नाहक़ जलाना हो किसी को तो जला देना
हैं ए'तिबार से कितने गिरे हुए देखा
मिले ग़ैरों से मुझ को रंज ओ ग़म यूँ भी है और यूँ भी
जताते रहते हैं ये हादसे ज़माने के
तुम्हें परवा न हो मुझ को तो जिंस-ए-दिल की परवा है