थकी हारी चिड़ियों के
इक ग़ोल की तरह
जब शाम उतरी
घने बरगदों पर
मेरी कल्पनाओं के पंछी
लिए अपनी चोंचों में तिनके
उड़े उन पुर-असरार
अंधी
दिशाओं की जानिब
जहाँ आग के जंगलों में
मिरी आत्मा
कितनी सदियों से ब्याकुल
कोई आशियाँ ढूँढती है
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
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Gulzar
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आवाज़ के पत्थर जो कभी घर में गिरे हैं
आशियाँ ढूँढती है
इन पत्थरों के शहर में दिल का गुज़र कहाँ
क़तरा क़तरा तिश्नगी
एक मशवरा
ज़िंदगानी हँस के तय अपना सफ़र कर जाएगी
चक्खोगे अगर प्यास बढ़ा देगा ये पानी
छुप जाएँ कहीं आ कि बहुत तेज़ है बारिश