मिरी तन्हाइयों को कौन समझे
मैं साया हूँ मगर ख़ुद से जुदा हूँ
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गूँज मिरे गम्भीर ख़यालों की मुझ से टकराती है
ख़ुद को शरर शुमार किया और जल बुझे
जिसे लिख लिख के ख़ुद भी रो पड़ा हूँ
सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा
दिल के उजड़े नगर को कर आबाद
आ जा अँधेरी रातें तन्हा बिता चुका हूँ
साँप सपेरा और मैं
हमें ख़बर है ज़न-ए-फ़ाहिशा है ये दुनिया
पागल औरत
मैं बहारों के रूप में गुम था
हर रात का ख़्वाब