हमें ख़बर है ज़न-ए-फ़ाहिशा है ये दुनिया
सो हम भी साथ इसे बे-निकाह रखते हैं
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ख़ुद को शरर शुमार किया और जल बुझे
मेरे सुख़न की दाद भी उस को ही दीजिए
मैं उसे समझूँ न समझूँ दिल को होता है ज़रूर
इस तरीक़े को अदावत में रवा रखता हूँ मैं
हर रात का ख़्वाब
शायद वो संग-दिल हो कभी माइल-ए-करम
असनाम-ए-माल-ओ-ज़र की परस्तिश सिखा गई
जिसे लिख लिख के ख़ुद भी रो पड़ा हूँ
मैं बहारों के रूप में गुम था
आ जा अँधेरी रातें तन्हा बिता चुका हूँ
यूँ भी हुआ इक अर्से तक इक शे'र न मुझ से तमाम हुआ
मुझ पे ऐसा कोई शे'र नाज़िल न हो