तुम न तौबा करो जफ़ाओं से
हम वफ़ाओं से तौबा करते हैं
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बस फ़र्क़ इस क़दर है गुनाह ओ सवाब में
दिल वो सहरा है कि जिस में रात दिन
नई सुब्ह
दौर-ए-चर्ख़-ए-कबूद जारी है
मेरे मरने की भी उन को न ख़बर दी जाए
फिर किसी बेवफ़ा की याद आई
वो और होंगे पी के जो सरशार हो गए
हर एक फूल के दामन में ख़ार कैसा है
अब तो एहसास-ए-तमन्ना भी नहीं
शाम को सुब्ह अँधेरे को उजाला लिक्खें
गाँधी
तैरेगा फ़ज़ा में जो समुंदर न मिलेगा