दिल वो सहरा है कि जिस में रात दिन
फूल खिलते हैं बहार आती नहीं
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इश्क़ क्या चीज़ है ये पूछिए परवाने से
कौन कहता है मोहब्बत की ज़बाँ होती है
तैरेगा फ़ज़ा में जो समुंदर न मिलेगा
झूमी है हर इक शाख़ सबा रक़्साँ है
अदू-ए-बद-गुमाँ की दास्ताँ कुछ और कही है
ज़िंदगी हम से ख़फ़ा हो जैसे
शाम को सुब्ह अँधेरे को उजाला लिक्खें
दर्द-ए-दिल भी कभी लहू होगा
मेरे मरने की भी उन को न ख़बर दी जाए
हम को मस्ती ओ ख़्वारी आई
अहल-ए-कशती ने ख़ुद-कुशी की थी